क्या हर एक झगड़े में केवल कोई एक ही सही होता है?

Varun Khillare

Exploring the origins of quarrels, this prose unveils the destructive interplay of misunderstandings and stubbornness. It encourages readers to steer clear of such conflicts, emphasising the importance of empathy and understanding each other's pain.

हम अपनी रोज़ की दिनचर्या में कई अनुभव लेते हैं। कुछ आनंद भरे पल, कुछ दुःख भरे पल, कुछ चिढ़-चिढ़े पल या कुछ उदासी भरे। हर इंसान अपनी जिंदगी में इन तमाम दौरों से गुजरता है, उनमें से ही एक है वाद-विवाद या आसान भाषा में झगड़ा।

अगर झगड़े को आसान भाषा में समझाने जाऊं तो इसकी व्याख्या मैं "विचारों का न मिलना अथवा किसी एक चीज़ पर अलग-अलग मत होना (मतभेद)" ऐसे बताऊँगा इसलिए झगड़ा-निर्माण होता है मतभेदों से लेकिन सवाल उठता है हमेशा कोई एक ही सही होगा? मेरे मत में, ज़्यादातर मामलों में कोई एक सही होगा, यह हो सकता है पर हमेशा नहीं। ऐसे कई उदहारण मिल जाएंगे।

चलो, कोई भी एक झगड़ा उठालो। साधारणतः, क्या होता है कि कोई अपने स्वार्थ के लिए दूसरों को हानि पहुँचाता है या फिर संसाधनों से वंचित रखता है, इससे झगड़ा-निर्माण होता है। ऐसे मामलों में दोष वंचित का नहीं स्वार्थी का है। ज्यादातर किस्से हमें इसी प्रकार के मिलेंगे। अगला आता है दोनों का अपने ही मुद्दों पे अड़े रहने वाला मामला - यह थोड़ा जटिल है।

मान लीजिए, किसी बात पे बहस होती है। दोनों पक्ष को लगता है कि उनका अपना मत ही सही है। दोनों एक-दूसरे की कुछ सुनना ही नहीं चाहते, इससे कार्य और उलझ जाता है। दोनों पक्षों को अपनी ही बात संपूर्ण सत्य लगना, यह इसका मुख्य कारण है, इसपे गौर करना चाहिए। इसका मुख्य कारण है - अपने सिद्धांतों से चिपके रहना एवं उसी को सत्य मान बैठना।

इसका परिणाम यह होता है कि हम उस मुद्दे को दूसरे नज़र से ना ही देख पातें हैं और ना ही परख पातें हैं। इसी कारण से हम मूल सत्य तक कभी पहुँच नहीं पातें। दोनों पक्ष इसी भाव से एक दूसरे का विरोध करते रहते हैं। अपने मत को सत्य और दूसरे को असत्य मानना यह भावना दोनों को असल सच से कोसों दूर कर देती है और यह झगड़ा दीर्घकाल तक बना रहता है।

ऐसे झगड़े में हम किसी एक को सही नहीं कह सकते। यह तो "ताली दोनों हाथों से बजती है" वाला मसला है। ऐसे मामलों में दोनों समान रूप से दोषी होंगे, क्योंकि सत्य तो कुछ और है। कभी-कभी एक पक्ष अपने विचारों को बड़ा एवं सत्य मान बैठता है, इसी वजह से सुलह नहीं हो पाती है। इसलिए अरस्तू ने कहा है - “कोई सत्य दूसरे सत्य से बड़ा या छोटा नहीं होता, सत्य सत्य होता है।”

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एक और मामला लीजिए- भावनाओं का असंतुलन। इसमें मुख्यतः एक व्यक्ति अपने परिसर की चीज़ों को कैसे प्रतिक्रिया देता है इसका समावेश होगा। कोई जरा-सी बात पे क्रोधित हो जाता है। अगर सामने वाला उसको दुःख नहीं देना चाहता पर फिर भी यह भावुक इंसान क्रोधित हो जाता है और इसका परिणाम झगड़ा है। इसमें दोष उस भावुक इंसान का है। हमें अपनी भावनाओं को नियंत्रित करना चाहिए, इसीलिए क्रोध हानिकारक है। बुद्ध कहते है- “क्रोध करना अपने हाथों पर गरम कोयला रखने समान है जिसको हम दूसरों पर फेंकना चाहते है परन्तु इसमें हमारी ही हानि होती है।”

अगला आता है - गलतफहमी। इसमें दोनों व्यक्ति एक-दूसरे के प्रति गलत धारणा की वजह से झगड़ा करते है। अगर उनमें से कोई एक यह दूर करने आगे बढ़े तो उसके सामने वाला अपनी बात पे अड़े रहने के लिए दोषी है।

कई बार ऐसा होता है कि परिस्थिति ही ऐसी हो जाती है कि हम कुछ नहीं कर सकते। इसे एक उदाहऱण से समझते है- एक माँ ने अपना बड़ा बेटा देश के लिए जंग में खो दिया। उसका छोटा बेटा भी अपने भाई की तरह सैनिक बनना चाहता है, पर उसकी माँ ऐसा नहीं चाहती। इस विषय पर दोनों का झगड़ा हो जाता है। यहाँ माँ की चिंता जायज़ है और बेटे का अपने भाई और देश के प्रति लगाव भी, किन्तु परिस्थिति ही ऐसी है कि दोनों लाचार हैं। ऐसे मामलों में दोषी कोई नहीं है। दोष उस परिस्थिति का है या फिर समय का। मेरे ख्याल से, इसका हल शान्ति और संयम से बात करना ही हो सकता है।

हमने अब तक जितने मामलें देखे उनसे यह लगता है कि जरूरी नहीं कि किसी झगड़े में कोई एक ही हमेशा सही हो। दोनों भी सही हो सकते हैं और दोनों भी गलत हो सकते हैं या फिर कोई एक सही हो सकता है।

झगड़ा होता ही इस वजह से है कि कोई एक-दूसरे को समझना ही नहीं चाहता है। लोग अपने-आप को सामने वाली की स्थिति में रख कर सोचना ही नहीं चाहते। लोग सामने वाले के ज़मीर को अपना ज़मीर समझना नहीं चाहते हैं। यही गलतियां दोहराई जाती हैं, यही हमें नहीं करना है। कितनी भी बड़ी समस्या हो, कितना भी झगड़ा हो, सबका उपाय होता है। बस हमें एक इंसान के तौर पर एक-दूसरे को समझना चाहिए, एक दूसरों के दुखों को समझना चाहिए। इसलिए मैं कहता हूँ-


आँखें मिली है तुझको,

देखने दर्द आँखों का,

पोछ न सकें आँसूं जो,

क्या फायदा उन हाथों का?

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Varun Khillare

Varun Khillare is a proud Maharashtrian, currently pursuing his third year in electrical engineering. Besides watching cricket and anime in his off-time, he tries to satiate his curiosity about the Universe and spend some time looking at the stars. Drawing emotions and observing nature in his poetry, he also believes that words are deeper and denser than even black holes.

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